Monday, September 15, 2008
आडवाणी जी आप से तो ऐसी उम्मीद नहीं थी
Sunday, April 13, 2008
औचित्य
अभी कुछ दिन पहले हुए उच्चतम न्यायालय के एक ऐतिहासिक निर्णय को विभिन्न राजनैतिक दलों ने अपनी अपनी विचारधारा की जीत बताया है। किसी ने भी इस बात पर टिप्पणी नहीं की है की यह निर्णय भारत के नवनिर्माण में कितनी सहायता करता है। इस निर्णय में सब से ज़रूरी बात यह है की न्यायालय ने यह नहीं कहा है की भारत में आरक्षण नीति तर्क सांगत है या आवश्यक है। इस निर्णय में न्यायालय ने केवल सविंधान में संशोधन करने के भारत सरकार के अधिकार/ निर्णय को सही ठहराया है। अतः यह कहना कि उच्चतम न्यायालय ने आरक्षण पर मुहर लगा दी है सैद्धांतिक रूप से ग़लत है। इस निर्णय के दूरगामी परिणाम अवश्य होंगे। पर हम यहाँ यह देखने का प्रयत्न कर रहे हैं कि आरक्षण का औचित्य क्या है? आरक्षण नीति का औचित्य था समाज के पिछडे/ दलित लोगों के उत्थान का। उत्थान शब्द शायद यहाँ उचित नहीं है, परन्तु फिर भी इस का औचित्य यही था कि समाज का जो वर्ग पिछड़ा और उपेक्षित था उसे आगे बढ़ने के समान अवसर दिए जाएँ, और चूँकि यह वर्ग अभावों में जी रहा था , अतः इसको आगे बढ़ने के लिए न्यूनतम अंक सीमा और आयु के मापदंडों में छूट दी गयी। लेकिन आज ६० वर्ष के बाद भी एक बार भी किसी भी सरकार ने यह जानने या बताने का प्रयत्न नहीं किया कि आरक्षण निति से कितने लोगों को लाभ हुआ। इस नीति कि राजनीति से कई सरकारें बनी और बिगडी, कई बार देश का भविष्य इस एक मुद्दे को लेकर अनिश्चितता में झूलता रहा। आरक्षण का औचित्य बहुत है लेकिन मेरी समझ में इसका औचित्य उन लोगों के लिए नहीं है जिन के लिए इसे लागू किया जाता है। इसका औचित्य उन लोगों के लिए अधिक है, जो उस आरक्षित जनता के भाग्य विधाता बन इस एक जलती लकड़ी से सालों तक अपने स्वार्थ कि रोटियां सेंकना चाहते हैं। एक बार मेरे एक गुरु डॉक्टर सूर्यस्वामी ने मुझ से कहा था -" राजनीति सार्वजनिक जीवन का शौचालय है " बहुत सटीक और सही लगती है यह बात जब भी आरक्षण पर हो रही राजनीति देखता हूँ। राजनीति कि बात कभी और करेंगे , यहाँ मुद्दा कुछ और है। मेरा मानना यह है कि जब आरक्षण का औचित्य उस वर्ग कि सहायता करना है जो कि अभी तक उपेक्षित थे तो ठीक है, परन्तु यदि एक व्यक्ति को आरक्षण मिला और वो उस से डॉक्टर अथवा इंजिनियर या वकील बन गया तो वो अपनी संतान को किसी भी अन्य डॉक्टर या वकील की तरह पाल पोस कर बड़ा कर सकता है। वह निश्चय ही यदि धनाढ्य वर्ग का न भी हुआ तो भी अपेक्षित या शोषित तो नहीं है । इस के बाद भी अपनी जति कि दुहाई देकर इस व्यक्ति कि संतान किसी और ज़रूरत मंद / मेधावी छात्र कि योग्यता को ठेंगा दिखा कर आगे बढ़ जाता है। उच्चतम न्यायालय ने सरकार को पिछड़ी जाति के उन लोगों कि सूची बनने को कहा है जो कि आरक्षण का लाभ ले चुके हैं। सोच अच्छी है, पर इतना साहस किसी राजनैतिक दल में दिखाई नही देता कि वह यह कार्य करने कि गलती करे। आरक्षण के एक प्रश्न पर सत्ताधीशों के सिंहासन डोल जाते है। यदि आरक्षण का लाभ पिछडों के ऊँचे वर्ग से निकल कर आम जनता तक पहुँच गया तो आरक्षण का औचित्य ही समाप्त हो जायेगा। आरक्षण का औचित्य भारत के राजनैतिक परिदृश्य में तभी तक है जब तक इस का लाभ उन्हें नहीं मिलता जिनके लिए ये बनाया गया है। तभी तक आरक्षण का झुनझुना बजा कर इस भीड़ को एक दिशा में एक साथ हांका जा सकता है। कभी कभी इस झुंड पर अपना हक जताने में बहुत हास्यास्पद हरकतें कर डालते हैं। जैसे कुछ दिन पहले एक राज्य की मुख्यमंत्री ने दुसरे दल के युवा नेता पर आरोप लगाया था कि वो दलित लोगों से मिलने के बाद स्नान करता है। सरकार आरक्षण को सभी दाखिलों और नौकरियों में लागू करना चाहती है। लेकिन इसका औचित्य तभी पूरा होगा जब २७ % आरक्षण के अनुसार भारत के प्रधान मंत्री का पद हर पाँच साल में सवा साल के लिए ओ बी सी वर्ग और सवा साल के लिए अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों के लिए हो। इसी प्रकार देश के सभी राजनैतिक दलों को अपने दलों के पिछड़ा वर्ग प्रकोष्ठ बंद कर के उसकी जगह अपनी कार्य कारिणी में ५० % आरक्षण का प्रावधान रखना चाहिए। और चूँकि ये आरक्षित पद हैं तो इन पर लोगों को उनके राजनीतिक अनुभव या सेवाओं के बल पर नहीं, बल्कि जाति के आधार पर रखा जाना चाहिए। सबसे पहले इस दलों को अपने यहाँ काम करने वालों में से जाति के आधार पर चुन कर कर बिना राजनैतिक अनुभव के लोगों को कार्यकारिणी के महत्वपूर्ण पदों पर आसीन करना चाहिए । शायद ये लोग हमें एक बेहतर भारत दे पाएं। और आरक्षण का औचित्य भी पूरा हो जाए।